Friday, October 28, 2011

संवाद के साथी : पोस्टकार्ड


(साभार : जनसत्ता, 1 जून, 2011 : अजयेंद्र नाथ त्रिवेदी)

Friday, October 21, 2011

डाकिया डाक लाया

सुख-दुख की धूप-छांव मानव समाज में आदि काल से ही अपने रंग-ढंग दिखाती रही है और आज भी मानव जीवन के साथ उसकी यह आंख मिचैली बदस्तूर जारी है। जब से आदमी ने संगठित समाज के रूप में अपनी विकास यात्रा का शुभारम्भ किया, ठीक तभी से उसके जीवन में समाचारों और संदेशों का महत्व बढ़ गया। यहां तक कि वनवास के समय अपहरण के उपरान्त अपनी प्राणप्रिया सीता जी के विरह में भगवान् श्रीराम भी व्याकुलता के चरम पर पहुंच कर वनप्रांतर के तृणमूल एवम् वृक्षों झाडि़यों को पकड़ पकड़ कर यह पूछने लगे कि 'हे वृक्षो लताओ, बताओ ! मेरी सीता कहां है और किस हाल में है ?' फिर भी सीता जी के विषय में कुछ भी ज्ञात न हो पाने के कारण उनकी विकलता और बढ़ने लगी । तब पवनपुत्र वीर हनुमान ने लंका की अशोक वाटिका से सीता माता का समाचार संदेश लाकर रामदूत अतुलित बलधामा होने का गौरव पाया ।

इधर मेघों के माध्यम से संदेश भिजवाने की अवधारणा कालिदास के यहां मेघदूत के रूप में ही नहीं मिलती बल्कि भारतीय सिनेमा में भी इसकी अनुगूंज सुनाई देती है -

जा रे कारे बदरा/बलम के द्वार ।
वो हैं ऐसे बुद्धू/के समझे ना प्यार ।।

आपको जरूर याद होगा वह फिल्मी गीत भी जिस में बिना पढ़ी लिखी नायिका दूर शहर चले गये अपने प्रेमी को खत लिखने के लिये डाकिया की बहुत मिन्नतें करती है, उसपर भरोसा करके अपने मन का सारा हाल उसी से लिखवाती है-

खत लिख दे सांवरियां के नाम बाबू ।
कोरे कागज पे लिख दे सलाम बाबू ।।
वो जान जाएंगें, वो मान जाएंगें -
कैसे होती है सुबह से शाम बाबू ।।

अपनी जिस प्रेम व्यथा को सारी दुनियां से छुपाती हैं, उसी में डाकिया बाबू को अपना हमराज़ बनाती हैं । यह अलग बात है कि समय के साथ वह प्रेम की जोगन अब इतनी अशिक्षित नहीं रही। अब तो बतियाने वाली डिबिया (सेलफोन) आठों याम उसकी कनपटी से सटी रहती हैं। भले ही आज ई-मेल का जमाना आ गया हो, भारतीय समाज में डाकिये का महत्व शुरू से रहा है। सभी घरों के एक ष्काॅमन मैम्बरष् के रूप में उसकी सामाजिक स्वीकृति बनी हुई है । तभी तो उर्दू के जाने माने शायर निदा फाजली ने उसके बारे में क्या खूब कहा है-

सीधा-सादा डाकिया जादू करे महान् ।
एक ही थैले में रखे आंसू और मुस्कान ।।

भारत में विज्ञापन के क्षेत्र में सम्भवतः पहला ब्राण्ड एम्बैसेडर होने का गौरव यदि किसी को प्राप्त है तो वह एकमात्र डाकिया ही है। डाकघर के लाल डिब्बे में जब आप कोई पत्र पोस्ट करते हैं कि यह पत्र, भले ही बैरंग क्यों न हो - अपने गन्तव्य तक यथाशीघ्र पहुंचेगा जरूर । फिर चाहे धूप हो या बारिश, गर्मी हो अथवा सर्दी भारतीय डाकिया ने इस विश्वास को सदा बनाये रखा है । इसी छवि को ध्यान में रखते हुए सन् 70 के दशक के अंत तक भारतीय खाद्य तेल के बाजार में एक छत्र राज करने वाले पोस्टमैन रिफाइंड आॅयल को उस उम्र के लोग भूले नहीं होंगे । तेल कम्पनी को अपनी बिक्री बढ़ाने के मकसद से अपने तेल की कनस्तरी पर छापने के लिये किसी पुलिसमैन के चित्र को नहीं अपितु पोस्टमैन को चुना। यह पोस्टमैन मार्का का ही कमाल था कि इस खाने के तेल ने हर भारतीय रसोई में कई दशकों तक धूम मचाए रखी ।

भारत के सभी विद्यालयों में लगभग बारहवीं कक्षा तक सभी भाषाओं में डाकिया पर केवल निबंध ही नहीं लिखे जाते बल्कि अनेक विद्यालय अपने सभी छात्रों को बसों में भरकर शहर के डाकघर की सैर कराने भी ले जाते हैं जहां पर बच्चों के इस कौतूहल को शांत करने की कोशिश की जाती है कि एक पत्र पेटिका में पोस्ट करने से लेकर पोस्टमैन की मार्फत दिये गये पते पर पहुंचने से पहले किन-किन प्रक्रियाओं से गुजरता है ।

भारतीय डाक विभाग और रेलवे का एक दूसरे के अस्तित्व में आने के साथ ही अटूट सम्बन्ध रहा है । यह भी अपने आप में कितना अद्भुत संयोग है कि भारतीय रेल की किसी भी रेलगाड़ी का नाम फलां रेल अथवा अमुक रेलगाड़ी बिल्कुल भी नहीं है जबकि असंख्य रेलगाडि़यों के नाम के साथ 'मेल' शब्द का मेलजोल अवश्य है जैसे कि 'पंजाब मेल', 'फ्रंटियर मेल' आदि । निश्चित रूप से रेल विभाग ने भी डाक की महिमा का ध्यान रखते हुए अपने यात्रियों को यह संदेश देना जरूरी समझा कि फलां मेल गाड़ी में डाक का डिब्बा है ।

डाक विभाग का राष्ट्रीय सुरक्षा के क्षेत्र में भी बहुत महत्वपूर्ण योगदान है । सेना डाक सेवा नाम से इसका एक बहुत विशाल एवम् अलग प्रकोष्ठ है । यह भी पूर्णतः प्रशिक्षित एवम् शस्त्र सुसज्जित स्वयं में एक पूरी फौज ही है जो पूरे देश में सुदूर जंगलों, बीहड़ बियाबानों तथा दुर्गम पहाड़ी चोटियों पर युद्ध अथवा शांतिकाल में कभी भी और कहीं भी चाहे चार सैनिकों की चैंकी ही क्यों न हो, घर से या कहीं से भी उन सैनिकों के नाम आया एक अदद पोस्टकार्ड भी सेना डाक सेवा का नौजवान उन्हें वहीं उनके निर्धारित ठिकाने पर पहुंचायेगा जरूर। बर्फानी बंकरों में तैनात हमारे वीर सिपाहियों के लिये घर से प्राप्त होने वाले पत्र कितना बड़ा सहारा होते हैं इसका अनुमान किसी वार सैनिक बेटे को लिखे उसकी माँ के इस पत्र सन्देश के द्वारा आसानी से लगाया जा सकता है जिसे अलवर के एक कवि ने अपनी ओजस्वी कविता में यूं ढाला है-

छुटकी ने राखी रख दी है इसमें बड़े गरूर से ।
और बहू ने तिलक किया है इसका निज सिंदूर से ।।
मेरी बूढ़ी छाती में भी दूध उतर आया बेटा,
और गोंद की जगह उसी से चिट्ठी को चिपकाया बेटा ।।

सेना में एक बात बहुत प्रचलित है कि कोई भी सैनिक एक समय राशन न मिले तो परेशान नहीं होता किन्तु घर से आए पत्र के लिये वह बहुत विचलित होता है । उसकी इसी बेचैनी को शांत करती है आर्मी पोस्टल सर्विस । घर से आयी चिट्ठी किसी फौजी के लिये पूरा घर होती है । चिट्ठी में उसे उसके घर की पूरी झलक मिलती है जिसे पढ़कर प्रेमपूर्वक तह करके वह जेब में रख लेता है और अगले ही पल दुश्मन पर टूट पड़ता है ।

सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के समय भी डाक विभाग का काम अत्यन्त सराहनीय रहा है । अंग्रेजों ने इस स्वाधीनता आन्दोलन को ग़दर की संज्ञा दी । इस जंग-ए-आजादी में शिरकत करने के जुर्म में अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह ज़फर पर चले मुकदमें की कार्यवाई बुधवार 27 जनवरी 1858 से शुरू होकर मंगलवार 9 मार्च 1858 तक कुल 21 दिन चली थी । इसमें छठे दिन की कार्यवाही मंगलवार 2 फरवरी सन् 1858 के रोज़ बहादुरशाह ज़फर के (शाही) हकीम एहसन उल्ला खाँ अदालत में बुलाये गये तथा डिप्टी जज एडवोकेट ने उनका ब्यान लिया । उन्हें क्रमशः 6 कागजों की तस्दीक करने को कहा गया । गवाह ने समुचित उत्तर दिया । कागज नम्बर 5 की बाबत अलग से जोर देकर पूछे जाने पर गवाह ने ब्यान किया, 'जी नहीं वह किसके हाथ का लिखा है, मैं नहीं पहचान सकता।' आगे पूछे जाने पर हकीम साहब ने अपनी गवाही में कहा, 'जी हाँ, मुझे मुहम्मद बख्त खाँके दफ्तर के किसी मुहर्रिर की लिखावट मालूम होती है।' कागज जिस पर 'अ' का चिन्ह था असली लिफाफा सहित जिस पर दिल्ली के डाकखाने की मुहर है, लाया गया । इससे सिद्ध होता है कि वह 25 मार्च सन् 1857 को दिल्ली के डाकखाने में डाला गया और 27 मार्च सन् 1857 की मुहर प्रकट करती है कि यह उस दिन आगरे पहुँचा । (बहादुर शाह का मुकदमा, लेखकः ख्वाजा हसन निज़ामी, पृ0 27) डाक विभाग ने अपने बाल्यकाल में जबकि उन दिनों आज जैसे यातायात के साधनों का विकट अभाव था तब भी दिल्ली से पोस्ट किये गये पत्र को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बेहद उथल पुथल भरे समय में ठीक तीसरे दिन आगरा में वितरित कर दिया। यह डाक विभाग की शैशवास्था की कार्य-कुशलता का प्रामाणिक उदाहरण है जो कि इतिहास का अटूट अंग बन चुका है । चिट्ठी पर दर्ज पोस्टमैन के 'रिमार्क' को आज भी अदालतों में पूरी मान्यता दी जाती है ।

भारतीय मुद्रा बाजार में चवन्नी भले ही दिवंगत हो गयी हो किन्तु उसके सममूल्य 25 पैसे के डाक टिकट को डाक तिलक की भांति अपने भाल पर धारण करके कोई भी समाचार पत्र कश्मीर से कन्या कुमारी तक आज भी पहुंच रहा है. सामान्य-ज्ञान के रूप में एक बेहद रोचक जानकारी यह भी है कि भारत के सम्मानित जमाकर्ताओं की बदौलत डाकघर बचत बैंक अखिल विश्व में सर्वाधिक खाते होने के कारण दुनिया का सबसे बड़ा बैंक है । डाक विभाग की कल्याणकारी सेवाओं में ब्रेल लिपि में लिखे अंध साहित्य (ब्लाइंड लिटरेचर पैकेट्स) को पूरे देश में यहां से वहां पूर्णतः निःशुल्क पहंुचाया जाता है । किसी भी राष्ट्रीय आपदा के समय प्रधानमन्त्री राहत-कोष में दिये जाने वाले अंशदान के मनिआॅर्डरों का प्रेषण भी समय समय पर शुल्क मुक्त कर दिया जाता है किन्तु इसके लिए प्रत्येक बार नये आदेशों के अंतर्गत ही ये मनिआॅर्डर कमीशन मुक्त होते हैं ।

डाक विभाग अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति भी सदैव सजग एवम् समर्पित रहा है । 'अहर्निशं सेवामहे' तथा 'Service before self' की अवधारणा पर आधारित डाक विभाग द्वारा देश-विदेश की ख्याति प्राप्त महान् विभूतियों, ऐतिहासिक स्थलों, स्मारकों, शीर्षस्थ शिक्षा संस्थानांे, प्रमुख घटनाओं, अनेक सामाजिक चेतना से जुड़े प्रसंगों एवम् चर्चित आयोजनों पर समय-समय पर बहुरंगी डाक-टिकट जारी किये जाते हैं । डाक टिकटों का यह रंग-बिरंगा संसार डाक-टिकट संग्रहकर्ताओं के साथ साथ हर किसी का मन मोह लेता है ।

किसी जमाने में केवल डाक कर्मचारियों तक सीमित डाक जीवन बीमा सेवा न सिर्फ अन्य सभी केन्द्र अथवा राज्य सरकार एवम् सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के कर्मचारियों तक पहुंचाई गई बल्कि इसके साथ-साथ ग्रामीण डाक जीवन बीमा पाॅलिसियां भी बहुत लोकप्रिय सिद्ध हो रही हैं । इसके अलावा स्पीड पोस्ट के बाद पंजीकृत डाक को भी नेट पर लाया जा रहा है ताकि उसकी पहुंच पर डाक विभाग के ग्राहकवृन्द घर बैठे नजर रख सकें । इसके अतिरिक्त अन्य अनेक सेवाओं की भी समयबद्धता तय की गई है और भरसक प्रयास किये जा रहे हैं कि निर्धारित मानदण्डों के अनुसार सेवाओं में व्यापक सुधार सुनिश्चित किया जा सके । इसके लिए विभाग को अपने नित्य सिकुड़ते मानव संसाधन एवम् अन्य उपलब्ध अत्यल्प स्त्रोतों में वर्तमान आवश्यकताओं के अनुरूप भारी इजाफा करना होगा तभी जाकर मानव एवम् तकनीकी तथा मशीनी क्षमता का विभाग तथा राष्ट्रहित में व्यापक उपयोग सम्भव है ।

सामाजिक जीवन में आये उतार चढ़ाव के हिसाब से कर्तव्यों में कोताही की छुटपुट खबरें डाक-विभाग के सन्दर्भ में भी भले ही कभी कभार सुनी जाती हों तो भी डाक विभाग ने अपने ढांचे व कार्यशैली में आमूल परिवर्तन करने की ठानी है जिसमें आधुनिक सूचना तकनीक का भरपूर उपयोग किया गया है ताकि डाक-विभाग अपने स्वर्णिम अतीत एवम् गौरवशाली इतिहास के बरक्स उसकी पुरानी साख और विश्वसनीयता की अक्षुण्ण रखा जा सके।

- नीतिपाल अत्रि 'सुदर्शन'
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जन्म : 1 जनवरी 1962, गांव आसन, रोहतक (हरि0)/ शिक्षा: कला एवम् शिक्षा स्नातक ।
प्रकाशन: देश की अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित । आकाशवाणी से अनेक प्रसारण ।
सम्मान: मंडल स्तरीय राजभाषा पुरस्कार ।
संप्रति: भारतीय डाक विभाग में कार्यरत (डाक अधीक्षक कार्यालय, फरीदाबाद, हरियाणा में डाक सहायक).
संपर्क: 3763 जवाहर काॅलोनी, फरीदाबाद-121005
मो0: 09711386169








Tuesday, October 11, 2011

अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में 'राष्ट्रीय डाक सप्ताह'

'विश्व डाक दिवस' (9 अक्तूबर) के साथ-साथ पूरे देश में 9-14 अक्तूबर तक चलने वाले राष्ट्रीय डाक सप्ताह का आरंभ हुआ.मुख्यभूमि के साथ-साथ सुदूर अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में भी हर्षोल्लास के साथ इसे मनाया जा रहा है. एक तरफ जहाँ डाक मेलों द्वारा लोगों को डाकघरों की सेवाओं के बारे में बताने के साथ-साथ राजस्व अर्जन पर जोर दिया जा रहा है, वहीँ नई पीढ़ी को डाक घरों से जोड़ने हेतु भी बच्चों के लिए डाक घरों का विजिट, डाक टिकट प्रदर्शनी, पत्र-लेखन, पेंटिंग और प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिताएं आयोजित की जा रही हैं. पोर्टब्लेयर में राष्ट्रीय डाक सप्ताह का उद्घाटन निदेशक डाक सेवाएं श्री कृष्ण कुमार यादव द्वारा किया गया। इस अवसर पर श्री यादव ने कहा कि डाकघर ही एक मात्र ऐसा संस्थान है जो देश के सुदूरतम कोनो को जोडता है और इस तरह ऐसे क्षेत्रों में रह रहे लोगो को तमाम सुविधा मिलना सुनिश्चित हो जाती हैं। श्री यादव ने कहा कि इन द्वीपों में सभी प्रमुख डाक सेवाएं उपलब्ध हैं, जो मुख्य भूमि में मिलती हैं।

राष्ट्रीय डाक सप्ताह के तहत अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में 10 अक्टूबर को ‘बचत बैंक दिवस‘ के रूप में मनाया गया। इस अवसर पर जहाँ बचत मेला लगाया गया, वहीं लोगों को बचत बैंक सेवाओं के बारे मे जानकारी देते हुए बचत खाते खोलने की तरफ प्रवृत्त किया गया। डाक निदेशक श्री कृष्ण कुमार यादव ने कहा नेटवर्क की दृष्टि से डाकघर बचत बैंक देश का सबसे बड़ा रीटेल बैंक है।
172 मिलियन से अधिक खाताधारकों के ग्राहक आधार और 1,54,000 शाखाओं के नेटवर्क के साथ डाकघर बचत बैंक देश के सभी बैंकों की कुल संख्या के दोगुने के बराबर है। द्वीप समूह के डाकघरों से बचत खाता, आवर्ती जमा, सावधि जमा, मासिक आय स्कीम, लोक भविष्य निधि, किसान विकास पत्र, राष्ट्रीय बचत पत्र और वरिष्ठ नागरिक बचत स्कीम की खुदरा बिक्री की जाती है। ज्ञातव्य है कि ये सभी जमा राशियाँ केन्द्र सरकार द्वारा राज्यों के विकास कार्यों के लिए दी जाती हैं। डाकघर की जमा योजनाओं में आकर्षक ब्याज दरें हैं। द्वीप समूह में वर्तमान में लगभग 1 लाख 8 हजार खाते चल रहे हैं और वित्तीय वर्ष 2010-11 के दौरान लगभग 67 करोड़ रूपये डाकघरों में जमा हुए। वर्तमान परिवेश में डाक विभाग वन स्टाप शाप के तहत बचत, बीमा, गैर बीमा, पेंशन प्लान इत्यादि सेवायें प्रदान कर रहा है। इनमें से कई सेवायें अन्य फर्मों के साथ अनुबंध के तहत आरम्भ की गयी हैं। मनरेगा के तहत कुशल/अर्ध-कुशल/अकुशल मजदूरों के लिए रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने में भारत सरकार को सहयोग देते हुए डाकघर मजदूरी का भुगतान करने का माध्यम भी बन चुका है। द्वीप समूह में मनरेगा के 269 खाते संचालित है।

निदेशक श्री कृष्ण कुमार यादव ने कहा कि यह एक सुखद संकेत है कि डाक-सेवाएं नवीनतम टेक्नालाजी का अपने पक्ष में भरपूर इस्तेमाल कर रही हैं। डाकघरों की मनीआर्डर सेवा को द्रुतगामी बनाते हुए इसे “ई-मनीआर्डर“ में तब्दील कर दिया गया है। 'इंस्टेंट मनीआर्डर सेवा’ के तहत संपूर्ण भारत में आनलाइन मनी ट्रांसफर के तहत धनादेश भेजने व प्राप्त करने की सुविधा है। विदेशों में रह रहे व्यक्तियों द्वारा द्वीप समूहों में अपने परिजनों को तत्काल धन अन्तरण सुलभ कराने हेतु ’वेस्टर्न यूनियन’ के सहयोग से ’अंतर्राष्ट्रीय धन अन्तरण सेवा’ पोर्टब्लेयर, बम्बूफलाट और हैवलाक डाकघरों में उपलब्ध है। इसी क्रम में 11 अक्टूबर को 'मेल दिवस' मनाया गया जिसमें स्कूली बच्चों ने प्रधान डाकघर का दौरा किया जिसमें स्कूली बच्चों को मेल सार्टिगं, मेल वितरण,बचत बैंक, फिलैटलिक,प्रोजेक्ट एरो एंव टेक्नालॅाजी इत्यादि के बारे बताया गया। डाक निदेशक श्री यादव ने बताया कि 12 अक्टूबर को फिलैटलिक दिवस के रुप में मनाया जाएगा। जिसमें स्कूली बच्चों के लिए पत्र लेखन,प्रश्नोत्तरी एंव पेटिंग प्रतियोगिताएं आयोजित की जाएंगी। डाक विभाग के कर्मचारियों के साथ-साथ स्कूली बच्चों में भी डाक-सप्ताह के प्रति काफी उत्साह देखा जा रहा है.

Sunday, October 9, 2011

विश्व डाक दिवस : संवेदना के संवाहक पत्र

पत्रों की दुनिया बेहद निराली है। दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक यदि पत्र अबाध रूप से आ-जा रहे हंै तो इसके पीछे ‘यूनिवर्सल पोस्टल‘ यूनियन का बहुत बड़ा योगदान है, जिसकी स्थापना 9 अक्टूबर 1874 को स्विटजरलैंड में हुई थी। यह 9 अक्टूबर पूरी दुनिया में ‘विश्व डाक दिवस‘ के रूप में मनाया जाता है। तब से लेकर आज तक डाक-सेवाओं में वैश्विक स्तर पर तमाम क्रांतिकारी परिवर्तन आए हैं और भारत भी इन परिवर्तनों से अछूता नहीं हैं। डाक सेवाओं का इतिहास बहुत पुराना है, पर भारत में एक विभाग के रूप में इसकी स्थापना 1 अक्तूबर 1854 को लार्ड डलहौजी के काल में हुई। डाकघरों में बुनियादी डाक सेवाओं के अतिरिक्त बैंकिंग, वित्तीय व बीमा सेवाएं भी उपलब्ध हैं। एक तरफ जहाँ डाक-विभाग सार्वभौमिक सेवा दायित्व के तहत सब्सिडी आधारित विभिन्न डाक सेवाएं दे रहा है, वहीं पहाड़ी, जनजातीय व दूरस्थ अंडमान व निकोबार द्वीप समूह जैसे क्षेत्रों में भी उसी दर पर डाक सेवाएं उपलब्ध करा रहा है।

सभ्यता के आरम्भ से ही मानव किसी न किसी रूप में पत्र लिखता रहा है। दुनिया का सबसे पुराना ज्ञात पत्र 2009 ईसा पूर्व का बेबीलोन के खण्डहरों से मिला था, जो कि वास्तव में एक प्रेम पत्र था और मिट्टी की पटरी पर लिखा गया था। कहा जाता है कि बेबीलोन की किसी युवती का प्रेमी अपनी भावनाओं को समेटकर उससे जब अपने दिल की बात कहने बेबीलोन तक पहुँचा तो वह युवती तब तक वहाँ से जा चुकी थी। वह प्रेमी युवक अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाया और उसने वहीं मिट्टी के फर्श पर खोदते हुए लिखा-‘‘मैं तुमसे मिलने आया था, तुम नहीं मिली।‘‘ यह छोटा सा संदेश विरह की जिस भावना से लिखा गया था, उसमें कितनी तड़प शामिल थी। इसका अंदाजा सिर्फ वह युवती ही लगा सकती थी जिसके लिये इसे लिख गया। भावनाओं से ओत-प्रोत यह पत्र 2009 ईसा पूर्व का है और इसी के साथ पत्रों की दुनिया ने अपना एक ऐतिहासिक सफर पूरा कर लिया है।

जब संचार के अन्य साधन न थे, तो पत्र ही संवाद का एकमात्र माध्यम था। पत्रों का काम मात्र सूचना देना ही नहीं बल्कि इनमें एक अजीब रहस्य या गोपनीयता, संग्रहणीयता, लेखन कला एवं अतीत को जानने का भाव भी छुपा होता है। पत्रों की सबसे बडी विशेषता इनका आत्मीय पक्ष है। यदि पत्र किसी खास का हुआ तो उसे छुप-छुप कर पढ़ने में एवम् संजोकर रखने तथा मौका पाते ही पुराने पत्रों के माध्यम से अतीत में लौटकर विचरण करने का आनंद ही कुछ और है। यह सही है कि संचार क्रान्ति ने चिठ्ठियों की संस्कृति को खत्म करने का प्रयास किया है और पूरी दुनिया को बहुत करीब ला दिया है। पर इसका एक पहलू यह भी है कि इसने दिलों की दूरियाँ इतनी बढ़ा दी हैं कि बिल्कुल पास में रहने वाले अपने इष्ट मित्रों और रिश्तेदारों की भी लोग खोज-खबर नहीं रखते। ऐसे में युवा पीढ़ी के अंदर संवेदनाओं को बचा पाना कठिन हो गया है। तभी तो पत्रों की महत्ता को देखते हुए एन0सी0ई0आर0टी0 को पहल कर कक्षा आठ के पाठ्यक्रम में ‘‘चिट्ठियों की अनोखी दुनिया‘‘ नामक अध्याय को शामिल करना पड़ा।

सिर्फ साधारण व्यक्ति ही नहीं बल्कि प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने भी पत्रों के अंदाज को जिया है। माक्र्स-एंजिल्स के मध्य ऐतिहासिक मित्रता का सूत्रपात पत्रों से ही हुआ। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने उस स्कूल के प्राचार्य को पत्र लिखा, जिसमें उनका पुत्र अध्ययनरत था। इस पत्र में उन्होंने प्राचार्य से अनुरोध किया था कि उनके पुत्र को वे सारी शिक्षायें दी जाय, जो कि एक बेहतर नागरिक बनने हेतु जरूरी हैं। इसमें किसी भी रूप में उनका पद आडे़ नहीं आना चाहिये। महात्मा गाँधी तो पत्र लिखने में इतने सिद्धहस्त थे कि दाहिने हाथ के साथ-साथ वे बाएं हाथ से भी पत्र लिखते थे। पं0 जवाहर लाल नेहरू अपनी पुत्री इन्दिरा गाँधी को जेल से भी पत्र लिखते रहे। ये पत्र सिर्फ पिता-पुत्री के रिश्तों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि इनमें तात्कालिक राजनैतिक एवं सामाजिक परिवेश का भी सुन्दर चित्रण है। इन्दिरा गाँधी के व्यक्तित्व को गढ़ने में इन पत्रों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। आज ये किताब के रूप में प्रकाशित होकर ऐतिहासिक दस्तावेज बन चुके हैं। इन्दिरा गाँधी ने इस परम्परा को जीवित रखा एवं दून में अध्ययनरत अपने बेटे राजीव गाँधी को घर की छोटी-छोटी चीजों और तात्कालिक राजनैतिक-सामाजिक परिस्थितियों के बारे में लिखती रहीं। एक पत्र में तो वे राजीव गाँधी को रीवा के महाराज से मिले सौगातों के बारे में भी बताती हैं। तमाम राजनेताओं-साहित्यकारों के पत्र समय-समय पर पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित होते रहते हैं। इनसे न सिर्फ उस व्यक्ति विशेष के संबंध में जाने-अनजाने पहलुओं का पता चलता है बल्कि तात्कालिक राजनैतिक-सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक परिवेश के संबंध में भी बहुत सारी जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। इसी ऐतिहासिक के कारण आज भी पत्रों की नीलामी लाखों रूपयों में होती हैं।

कहते हैं कि पत्रों का संवेदनाओं से गहरा रिश्ता है और यही कारण है कि पत्रों से जुड़े डाक विभाग ने तमाम प्रसिद्ध विभूतियों को पल्लवित-पुष्पित किया है। अमेरिका के राष्ट्रपति रहे अब्राहम लिंकन पोस्टमैन तो भारत में पदस्थ वायसराय लार्ड रीडिंग डाक वाहक रहे। विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक व नोबेल पुरस्कार विजेता सी0वी0 रमन भारतीय डाक विभाग में अधिकारी रहे वहीं प्रसिद्ध साहित्यकार व ‘नील दर्पण‘ पुस्तक के लेखक दीनबन्धु मित्र पोस्टमास्टर थे। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लोकप्रिय तमिल उपन्यासकार पी0वी0अखिलंदम, राजनगर उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित अमियभूषण मजूमदार, फिल्म निर्माता व लेखक पद्मश्री राजेन्द्र सिंह बेदी, मशहूर फिल्म अभिनेता देवानन्द डाक कर्मचारी रहे हैं। उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द जी के पिता अजायबलाल डाक विभाग में ही क्लर्क रहे। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी,चर्चित समालोचक एवं प्रेमचन्द-विशेषज्ञ डा. कमल किशोर गोयनका तथा प्रसिद्ध बाल साहित्यकार डा. राष्ट्रबन्धु ने आरम्भ में डाक-तार विभाग में काम किया था। सुविख्यात उर्दू समीक्षक पद्मश्री शम्सुररहमान फारूकी, शायर कृष्ण बिहारी नूर, महाराष्ट्र के प्रसिद्ध किसान नेता शरद जोशी सहित तमाम विभूतियाँ डाक विभाग की गोद में अपनी सृजनात्मक-रचनात्मक काया का विस्तार पाने में सफल रहीं।

भारतीय परिपे्रक्ष्य में इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारत एक कृषि प्रधान एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था वाला देश है, जहाँ 70 फीसदी आबादी गाँवों में बसती है। समग्र टेनी घनत्व भले ही 70 का आंकड़ा छूने लगा हो पर ग्रामीण क्षेत्रों में यह बमुश्किल 20 से 25 फीसदी ही है। यदि हर माह 2 करोड़ नए मोबाइल उपभोक्ता पैदा हो रहे हैं तो उसी के सापेक्ष डाक विभाग प्रतिदिन दो करोड़ से ज्यादा डाक वितरित करता है। 1985 में यदि एस0एम0एस0 पत्रों के लिए चुनौती बनकर आया तो उसके अगले ही वर्ष दुतगामी ‘स्पीड पोस्ट‘ सेवा भी आरम्भ हो गई। यह एक सुखद संकेत है कि डाक-सेवाएं नवीनतम टेक्नाॅलाजी का अपने पक्ष में भरपूर इस्तेमाल कर रही हैं। ‘ई-मेल‘ के मुकाबले ‘ई-पोस्ट‘ के माध्यम से डाक विभाग ने डिजिटल डिवाइड को भी कम करने की मुहिम छेड़ी है। आखिरकार अपने देश में इंटरनेट प्रयोक्ता महज 7 फीसदी हंै। आज डाकिया सिर्फ सिर्फ पत्र नहीं बांटता बलिक घरों से पत्र इकट्ठा करने और डाक-स्टेशनरी बिक्री का भी कार्य करता है। समाज के हर सेक्टर की जरूरतों के मुताबिक डाक-विभाग ने डाक-सेवाओं का भी वर्गीकरण किया है, मसलन बल्क मेलर्स के लिए बिजनेस पोस्ट तो कम डाक दरों के लिए बिल मेल सेवा उपलब्ध है। पत्रों के प्रति क्रेज बरकरार रखने के लिए खुश्बूदार डाक-टिकट तक जारी किए गए हैं। आई0टी0 के इस दौर में चुनौतियों का सामना करने के हेतु डाक विभाग अपनी ब्रांडिंग भी कर रहा है। ‘प्रोजेक्ट एरो‘ के तहत डाकघरों का लुक बदलने से लेकर काउंटर सेवाओं, ग्राहकों के प्रति व्यवहार, सेवाओं को समयानुकूल बनाने जैसे तमाम कदम उठाए गए हैं। इस पंचवर्षीय योजना में डाक घर कोर बैंकिंग साल्यूशन के तहत एनीव्हेयर, एनी टाइम, एनीब्रांच बैंकिंग भी लागू करने जा रहा है। सिम कार्ड से लेकर रेलवे के टिकट और सोने के सिक्के तक डाकघरों के काउंटरों पर खनकने लगे हैं और इसी के साथ डाकिया डायरेक्ट पोस्ट के तहत पम्फ्लेट इत्यादि भी घर-घर जाकर बांटने लगा है। पत्रों की मनमोहक दुनिया अभी खत्म नहीं हुई है। तभी तो अन्तरिक्ष-प्रवास के समय सुनीता विलियम्स अपने साथ भगवद्गीता और गणेशजी की प्रतिमा के साथ-साथ पिताजी के हिन्दी में लिखे पत्र ले जाना नहीं भूलती। हसरत मोहानी ने यूँ ही नहीं लिखा था-

लिक्खा था अपने हाथों से जो तुमने एक बार।
अब तक हमारे पास है वो यादगार खत ।।

(विश्व डाक दिवस, 9 अक्तूबर पर आकाशवाणी, पोर्टब्लेयर से प्रसारित कृष्ण कुमार यादव, निदेशक डाक सेवाएं,अंडमान व निकोबार द्वीप समूह की वार्ता)

Saturday, October 8, 2011

विश्व डाक दिवस पर बधाईयाँ

डाक सेवाओं की एक पुरानी परम्परा है। दुनिया भर में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं होगा, जिसका कभी डाक सेवाओं से पाला न पड़ा हो। यह अचरज की बात है कि एक देश में पोस्ट किया हुआ पत्र दुनिया के दूसरे कोनों में आराम से पहुँच जाता है। डाक सेवाओं के संगठन रूप में उद्भव के साथ ही इस बात की जरूरत महसूस की गई कि दुनिया भर में एक ऐसा संगठन होना चाहिए, जो यह सुनिश्चित करे कि सभी देशों के मध्य पत्रों का आवागमन सहज रूप में हो सके और आवश्यकतानुसार इसके लिए नियम-कानून बनाये जा सकें।

इसी क्रम में 9 अक्टूबर 1874 को ‘‘जनरल पोस्टल यूनियन‘‘ के गठन हेतु बर्न, स्विटजरलैण्ड में 22 देशों ने एक संधि पर हस्ताक्षर किया था, इसी कारण 9 अक्टूबर को कालान्तर में ‘‘विश्व डाक दिवस‘‘ के रूप में मनाना आरम्भ किया गया। यह संधि 1 जुलाई 1875 को अस्तित्व में आयी, जिसके तहत विभिन्न देशों के मध्य डाक का आदान-प्रदान करने संबंधी रेगुलेसन्स शामिल थे। कालान्तर में 1 अप्रैल 1879 को जनरल पोस्टल यूनियन का नाम परिवर्तित कर यूनीवर्सल पोस्टल यूनियन कर दिया गया। यूनीवर्सल पोस्टल यूनियन का सदस्य बनने वाला भारत प्रथम एशियाई राष्ट्र था, जो कि 1 जुलाई 1876 को इसका सदस्य बना। जनसंख्या और अन्तर्राष्ट्रीय मेल ट्रैफिक के आधार पर उस समय सदस्य राष्ट्रों की 6 श्रेणियां थीं और भारत आरम्भ से ही प्रथम श्रेणी का सदस्य रहा। 1947 में यूनीवर्सल पोस्टल यूनियन, संयुक्त राष्ट्र संघ की एक विशिष्ट एजेंसी बन गई। यह भी एक रोचक तथ्य है कि विश्व डाक संघ के गठन से पूर्व दुनिया में एकमात्र अन्तर्राष्ट्रीय संगठन रेड क्रास सोसाइटी (1870) था।

कल 9 अक्टूबर को विश्व डाक दिवस है और इसी क्रम में पूरे सप्ताह राष्ट्रीय डाक सप्ताह (9-14 अक्टूबर) का आयोजन चलता है। इस दौरान जहाँ प्रतिदिन सेवाओं के व्यापक प्रचार-प्रसार एवं राजस्व अर्जन में वृद्धि पर जोर दिया जाता है वहीं डाक टिकटों की प्रदर्शनी, स्कूली विद्यार्थियों हेतु कार्यक्रम, कस्टमर मीट, स्कूली छात्र-छात्राओं द्वारा डाकघरों का विजिट, बचत बैंक खातों हेतु लकी ड्रा एवं उत्कृष्ट कार्य करने वाले स्टाफ तथा महत्वपूर्ण बचत अभिकर्ताओं व कारपोरेट कस्टमर्स के सम्मान जैसे तमाम कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं।

विश्व डाक दिवस की बधाईयाँ !!

Monday, October 3, 2011

जनसत्ता में भी 'डाकिया डाक लाया'




आज 3 अक्तूबर, 2011 को प्रतिष्ठित दैनिक समाचार पत्र 'जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर समांतर स्तम्भ के तहत 'डाकिया डाक लाया' ब्लॉग पर 21 सितम्बर को प्रकाशित पोस्ट 'चिट्ठियों की दुनिया' को 'संदेश की संवेदना' शीर्षक से प्रस्तुत किया गया है. यह पोस्ट पत्रों की आत्मीय दुनिया पर आधारित है !!

इससे पहले 'डाकिया डाक लाया' ब्लॉग और इसकी प्रविष्टियों की चर्चा दैनिक हिंदुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, राजस्थान पत्रिका, उदंती जैसी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में हो चुकी है.

गौरतलब है कि "डाकिया डाक लाया" ब्लॉग की चर्चा सबसे पहले 8 अप्रैल, 2009 को दैनिक हिंदुस्तान अख़बार में 'ब्लॉग वार्ता' के अंतर्गत की गई थी। रवीश कुमार जी ने इसे बेहद रोचक रूप में प्रस्तुत किया था. इसके बाद इसकी चर्चा 29 अप्रैल 2009 के दैनिक 'राष्ट्रीय सहारा' पत्र के परिशिष्ट 'आधी दुनिया' में 'बिन्दास ब्लाग' के तहत की गई. "प्रिंट मीडिया पर ब्लॉग चर्चा" के अनुसार इस ब्लॉग की 22 अक्तूबर की पोस्ट "2009 ईसा पूर्व में लिखा गया दुनिया का पहला पत्र'' की चर्चा 11 नवम्बर 2009 को राजस्थान पत्रिका, जयपुर संस्करण के नियमित स्तंभ 'ब्लॉग चंक' में की गई।



....ऐसे में यह जानकर अच्छा लगता है कि इस ब्लॉग को आप सभी का भरपूर प्यार व सहयोग मिल रहा है. आप सभी शुभेच्छुओं का आभार !!